विनीता शर्मा वर्सेस राकेश शर्मा एंड अदर्स : पार्टिशन के विषय मे

विनीता शर्मा वर्सेस राकेश शर्मा एंड अदर्स : पार्टिशन के विषय मे


सर्वोच्च न्यायालय के लार्जर बेंच के सामने हिन्दू कन्याओं को हिंदू अविभाजित कुटुंब में अंशभाग देने के विषय में दिनांक 11 ऑगस्ट 2020 को बहुत ही महत्वपूर्ण न्यायनिर्णय दिया गया।


विभागीय पीठ (डिव्हिजन बेंच) के न्यायाधीश सन्मानीय न्यायाधीश अरुण मिश्रा, न्यायाधीश एस. अब्दुल नजीर, न्यायाधीश एम. आर. शाह है। 


जीत द्वारा राष्ट्र ऐक्य व्यासपीठ के तथा आरजीएलएसपीएल के वाचकों के लिए न्यायनिर्णय का सारांश तथा प्रमुख विशेषतांए यंहा पर दी जा रही है, वो इस प्रकार:

1. आसान भाषा में यह न्यायनिर्णय मुख्यतः हिंदू उत्तराधिकार सुधारना अधिनियम, 2005 की प्रकाश में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 का स्पष्टीकरण करता है। तथा विभागीय पीठ (डिव्हिजन बेंच) के दो न्यायनिर्णयों के विषय में भी पुनर्विचार करता है। वह न्यायनिर्णय है: 1.Prakash and others vs Phulavati and others (2016) 2 SCC 36; तथा 2.Danamma @ Suman Surpur and another versus Amar and others (2018) 3 SCC 343।

2. इस प्रश्न पर इस न्यायनिर्णय में विचार किया गया कि, 2005 का सुधारना अधिनियम पूर्वलक्षी प्रभाव से 1956 से लागू किया गया है या नही?

3. इस प्रश्न पर इस न्यायनिर्णय में विचार किया गया कि, यदि सुधारना आने से पहले पिता की मृत्यु हो गई हो तो क्या कन्या को पूर्वलक्षी प्रभाव से धारा 6 के अनुसार अंशभागी माना जाएगा?

4. इस प्रश्न पर इस न्यायनिर्णय में विचार किया गया कि, अंतिम आदेशपत्र पश्चात कन्या पुनर्विभाजन (रीडिस्ट्रीब्यूशन) नहीं मांग सकती है?

5. इस प्रश्न पर इस न्यायनिर्णय में विचार किया गया कि, क्या धारा 6 पूर्वलक्षी (प्रोस्पेक्टिव्ह) है? पिता की मृत्यु 1994 हो गई है तो क्या कन्या को कोई अंशभाग नही मिल सकता, या मिल सकता है?

6. इस विषय पर इस न्यायनिर्णय में विचार किया गया है की, क्या कन्या का अंशभाग कम किया गया है?

7. इस विषय पर इस न्यायनिर्णय में विचार किया गया कि, क्या कन्या को शेड्यूल ए के आइटम नंबर 1 में स्थान देना चाहिए?

8. इस प्रश्न पर इस न्यायनिर्णय में विचार किया गया कि, क्या 9 सितंबर 2005 को जब सुधारना हुई तब पिता और कन्या इन दोनों अंशभागीयों का इस दिनांक पर जीवित होना आवश्यक है? क्या विभाजन पत्र का पंजीकृत होना या फिर न्यायलय की आदेशपत्र के रूप में होना आवश्यक है? क्या वैधानिक काल्पनिक विभाजन (स्टेटयूटरी नोशनल पार्टिशन) का कोई महत्व नही है? क्या धारा 6 प्रोस्पेक्टिव्ह है?

9. इस प्रश्न पर इस न्यायनिर्णय में विचार किया गया कि, क्या विभागीय पीठ (डिव्हिजनल बेंच) का कहना की धारा 6 कन्या को अंशभाग पूर्ण स्वरूप में देता है, यह सही है? क्या कन्या सहित कोई भी अंशभागी अंशभाग मांग सकता है? क्या पिता की 2001 में मृत्यु हुई है तो सुधारित धारा 6 के अनुसार 2 कन्याएं, 2 पुत्र और एक विधवा प्रत्येक को एक पंचमांश अंशभाग देना सही है?

इन सभी प्रश्नों के उत्तर में जो युक्तिवाद हुए वो इस प्रकार है

10. इन सभी प्रश्नों के उत्तर में भारत के सॉलिसिटर जनरल श्री तुषार मेहता ने इस प्रकार युक्तिवाद प्रस्तुत किया कि:

  1. सुधारना पूर्वलक्षी नहीं किंतु पूर्वकार्यी है। क्योंकि इस सुधारना से कन्या सुधारना के दिनांक से अपना अंशभाग का अधिकार बजा सकती हैं। अंशभाग जन्म अधिकार है। The amendment is not retrospective but retroactive in operation.

  2. सुधारना राज्यसभा के सामने 20 डिसेंबर 2004 को लाई गई थी। उससे पहले कोई भी विभाजन यदि हुआ है तो उस विभाजन से धारा 6 उपधारा 1 के अनुसार कन्या का अंशभाग बाधित नहीं होगा।

  3. सुधारना से पहले पुरुष मृतक के पीछे अनुसूची (शेड्यूल) के श्रेणी 1 की कन्या संबंधी (relative) को मृतक के हिस्से में अंशभाग मांगने का अधिकार था। पुत्र एवं पुरुष अंशभागी जैसा कौटुंबिक संपदा में अंशभाग नहीं मिलता था। मिताक्षरा अंशभाग नियमों के अनुसार कन्या के अधिकार लिंगभेद पर आधारित थे। तथा भारतीय राज्यघटना ने नागरिक के तौर पर कन्या को दिए गए समानता के अधिकार को नकारने वाले थे।

  4. दिनांक 9 सितंबर 2005 के सुधारना के पश्चात कन्या को वैसे ही अधिकार प्राप्त हुए हैं जैसे कि वह पुत्र ही है।

  5. दिनांक 20 दिसंबर 2004 से पहले कोई भी विभाजन हुआ है तो धारा 6 उपधारा 1 के अनुसार वह विभाजन कन्या का कोई भी अधिकार नहीं नकार सकता।

  6. धारा 6 में सुधारना के पश्चात जीविता के तत्व कि आधार पर अंशभाग मिलने का नियम समाप्त हो गया है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में दिए गए अमृत्युपत्रीय या फिर मृत्युपत्रीय उत्तराधिकार का नियम लागू हो गया है।

  7. प्रकाश वर्सेस फूलवती का न्यायनिर्णय सुधारित धारा 6 उपधारा 3 के साथ नहीं जाता। किसी भी अंशभागी का अंशभाग किसी और अंशभागी के मृत्यु के साथ नहीं समाप्त होता। जैसे कि पिता की मृत्यु पर कन्या का अंशभाग समाप्त नहीं होता। नए अंशभागी के आने से विभाजन परिवर्तित हो जाता है। जब विभाजन स्थाई किया जाता है तभी अंशभागी का अंशभाग अंतिम हो जाता है।

  8. धारा 6 में कन्या अंशभागी का अर्थ जीवित अंशभागी या जीवित पिता की पुत्री नहीं है। जिस पिता के द्वारा कन्या अंशभाग मांग रही है उसके पिता का जीवित होना या मृतक होना कन्या के अंशभाग पर प्रभाव नहीं डालता। कन्या का अंशभाग स्वतंत्र है।

  9. धारा 6 उपधारा 5 पर स्पष्टीकरण मूल सुधारना विधेयक में 20 दिसंबर 2004 के पश्चात डाला गया था।

  10. धारा 6 उपधारा 5 विभाजन का पंजीकृत होना अनिवार्य करता है। किंतु अनिवार्यता का उद्देश्य कुरचित (bogus) अधिकार निर्माण करने पर रोक लगाना है। यह पंजीकृत होने का प्रावधान स्वेच्छानिर्णयात्मक (discretionary) है। आदेशात्मक (directory) तथा बंधनकारक (mandatory) नहीं।

11. इस विषय में न्यायिक मित्र विद्वान वरिष्ठ समूपदेशक श्रीमान आर. व्यंकटरमानी यह युक्तिवाद करते हैं कि:

  1. प्रकाश वर्सेस फूलवती और धनम्मा वर्सेस सुमन के न्यायनिर्णय में कोई भेद नहीं है। दोनों न्यायनिर्णय धारा 6 को भविष्यलक्षी प्रभावी मानते हैं। सुधारना के कारण कन्या को अंशभागी बनाया गया है। कन्या को जन्म से अधिकार प्राप्त नहीं।

  2. दत्तक पुत्र के अधिकार दत्तक परिवार में दत्तक पिता के साथ प्राप्त होते हैं। किंतु दत्तक पुत्र उसके नैसर्गिक परिवार से आने वाले अधिकारों से वंचित हो जाता है। कन्या भी उसी तरह दूसरे परिवार में चले जाने से मूल परिवार से मिलने वाले अधिकारों से वंचित हो जाती हैं।

  3. हिंदू अविभाजित कुटुंब अधिनियम से निर्मित होता है। पक्षकारों से या उनकी कृति से निर्माण नहीं होता। परिवार सिर्फ संपदा में ही नहीं, अन्न और पूजा में भी एक साथ होता है। परिवार का मूलभूत आवश्यक गुण है सपिंड (Sanpindaship) होना।

  4. जैसे कि (1977) 3 एससीसी 385 में निरीक्षण किया गया है कि, हिंदू सहभागिता (coparcenary) के सात प्रमुख लक्षण है। सुधारना के पहले यदि कोई पुरुष अंशभागी मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसका अंशभाग अपने आप जीवित पुरुष अंशभागी के अंशभागो में विलीन हो जाता है। इसीलिए कन्या को सुधारना के दिन जीवित पुरुष अंशभागी की अंशभाग में अंशभाग मिल सकता है। मृतक के नहीं।

  5. पुत्र को पिता का ऋण चुकाने का पवित्र कर्तव्य प्राप्त होता है। इसलिए पुत्र को जन्म से ही अधिकार प्राप्त होना ना ही अवैध है ना ही अनैतिक।

  6. अंशभाग के हिंदू नियम और इंग्लिश नियम में भेद हैं। मिताक्षरा नियम में जीवितता के आधार पर अधिकार प्राप्त होता है। इंग्लिश नियम में मृतक का अधिकार मृतक के संबंधियों में हस्तांतरित होता है।

  7. पुरुष को जन्म से या दत्तक विधान से अंशभाग प्राप्त होता है। दत्तक विधान केवल पुरुष का होता है।

  8. धारा 6 में पूर्वलक्षी प्रभाव की कोई बात नहीं की गई। 2005 से पहले कन्या का जन्म कोई मायने नहीं रखता। पिछले कोई भी व्यवहार का पुनर्विलोकन आवश्यक नहीं है।

  9. धारा 6 उपधारा 1 तथा धारा 6 उपधारा 5 के अनुसार मौखिक विभाजन और पारिवारिक व्यवस्था यदि सुधारना से पहले हुई है तो उसका पुनर्विलोकन करने की कोई आवश्यकता नहीं।

  10. यदि कन्या को सुधारना से पहले अंशभागी माना गया तो इससे अधिनियमों के पालन में कठिनाई उपस्थित होगी।

  11. किसी भी अंशभागी को अंशभाग ना मिलने की भावना होने पर विभाजन को आवाहन देना स्वाभाविक है।

  12. धारा 6 का प्रावधान भविष्यलक्षी है। भविष्य में कन्या का अधिकार समानता से ना मिलने को धारा 6 प्रतिबंध करता है।

  13. पुरानी व्यवहार का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता। इसलिए केवल जिस कन्या के पिता सुधारना के दिन जीवित थे उसी कन्या को अंशभागी माना जाएगा। इसका कोई और स्पष्टीकरण अन्याय पूर्ण होगा।

12. न्यायालय के न्यायिक मित्र वरिष्ठ समूपदेशक श्री. वी. वी. एस. राव ने इस विषय में यह युक्तिवाद किया कि,

  1. सुधारना के दिन जीवित पिता की जीवित कन्या का होना आवश्यक है।

  2. धारा 6 उपधारा 1(ए) के अंतर्गत कन्या 2005 से पहले जन्मी हो या पश्चात में वह अंशभागी हैं। इसलिए धारा 6 का भविष्यलक्षी होना या पूर्वलक्षी होना मायने नहीं रखता।

  3. धारा 6 उपधारा 1(बी) और 1(सी) कन्या को अंशभागी के रूप में समाविष्ट करती है। धारा 6 के भाषा और व्याकरण से यह स्पष्ट हैं की कन्या का सहभागी में समावेश किया गया है। पूर्ण भविष्य काल में धारा की भाषा होना स्पष्ट रूप से और नि:संदिग्ध स्वरूप से कन्या को पुत्र जैसे अधिकार देने का संसद का मानस प्रकट करता है।

  4. धारा 6 का वैधानिक इतिहास 1956 से पहले की स्थिति में महिला को केवल संपदा में अधिकार प्राप्त कराना नहीं न करता था।किंतु जीविता के तत्वों पर भी अधिकार ग्रहण करने से  नकारता था। 1956 के पश्चात कन्या को अंशभाग मांगने का अधिकार प्राप्त हुआ। लेकिन उसे अंशभागी नहीं माना गया था।

  5. 174 वां विधि आयोग (law commission) का प्रतिवेदन (report) इस विषय में केरला मॉडल का अनुसरण करने का सुझाव देता है। केरला, आंध्र प्रदेश ,कर्नाटक और कई और राज्यों ने इसके अनुसार कन्या को अंशभाग दिया है।

  6. संसद के स्थाई समिति के प्रतिवेदन से विवाहित कन्या को सुधारणा का लाभ देने का मानस स्पष्ट होता है।

  7. संसद के स्थाई समिति के प्रतिवेदन में यह प्रस्तावित किया गया था कि, धारा 6 सुधारना से पहले की गई और कार्यान्वित हो चुकी किसी भी विभाजन पर लागू नहीं होगी।

  8. संसद की स्थाई समिति के विमर्श भी इस तरफ संकेत करते हैं कि मौखिक विभाजन हर विवाद के वास्तविक प्रमाण पर आधारित होगा। योग्य प्रमाण के आधार पर मौखिक विभाजन माना जा सकता है।

  9. संसद कन्या का अधिकार कन्या के जन्म से सिद्ध करना चाहती है। किंतु चार कारणों से संसद सुधारना को पूर्वलक्षी प्रभाव से नहीं लागू करना चाहती थी। वह चार कारण इस प्रकार है कि 1.धारा 6 उपधारा 1९(ए) 9 सितंबर 2005 से लागू होती है, 2.धारा 6 उपधारा 1 का परिचालित (operating) भाग उपउपधारा ए, बी, सी तीनों को नियंत्रित करता है, ३.इस लिए कन्या को केवल 9 सितंबर 2005 से ही अंशभाग प्राप्त होता है, ४.कन्या को 9 सितंबर 2005 से पुत्र के समान दायित्व भी प्राप्त होता है।

  10. धारा 6 उपधारा 1 में स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। उसके वर्तमानकालीन शब्द प्रयोग इस बात की पुष्टि करते हैं कि पुत्र के सुधारना से पूर्व के कोई भी अधिकार बाधित नहीं होंगे।

  11. धारा 6 उपधारा 5 के अनुसार दिया गया स्पष्टीकरण संसदीय समिति द्वारा अनुरोध (recommend) करने पर प्रस्तुत किया गया है। उससे पहले विधि आयोग (law commission) द्वारा विधेयक (bill) में तथा शासन द्वारा विधेयक में इसका उल्लेख नहीं था। इस प्रकार पंजीकृत विभाजन पत्र और न्यायलय के आदेशपत्र द्वारा विभाजन की संकल्पना प्रस्तुत की गई। और यह भी निश्चित हुआ कि कन्या भविष्यलक्षी प्रभाव से अन्य अंशभागी कि अंशभाग को प्रभावित नहीं कर सकती। प्रकाश वर्सेस फूलवती का निर्णय योग्य है।

  12. कन्या को अंशभाग मिलने का सबसे आवश्यक बंधन (condition) यह है कि, 2005 की सुधारना अस्तित्व में आने वाले दिन अविभक्त संपदा अस्तित्व में हो। यदि सुधारना से पहले ही विभाजन बिक्री और किसी भी अन्य प्रकार के हस्तांतरण से अविभक्त संपदा ही समाप्त हो गई है, चाहे वह हस्तांतरण मौखिक हो या लिखित, कन्या को अंशभाग प्राप्त नहीं होगा।

  13. धारा 6 उपधारा 5 का स्पष्टीकरण 20 दिसंबर 2004 के पहले हो चुके विभाजन की व्यवस्था को बाधित नहीं करता। यदि पक्षकार (parties) इससे पहले अपने अधिकार व्यवस्थापित कर चुके हैं तो उसका पुनर्विलोकन नहीं हो सकता।

  14. कन्या 20 दिसंबर 2004 के पहले से अस्तित्व में होने वाले व्यवहार को आवाहन नहीं दे सकती। कन्या को अधिकार प्राप्त होने के लिए एक जीवित अंशभागी होना आवश्यक है जिसका उत्तराधिकार कन्या को प्राप्त हो सकता है।आहेत

13. श्री श्रीधर पोताराजू विद्वान् समुपदेशक ने इस विषय मे युक्तिवाद किया कि:

  1. विवाहित कन्या पति के परिवार का अंशभाग बनने के पश्चात पिता के परिवार का अंशभाग होना समाप्त हो जाती है।

  2.  अंशभागी के जन्म से अंशभाग निर्माण होता है और मृत्यु से अंशभाग समाप्त होता है। जीविता के तत्व अंशभाग को न्यून अधिक करता रहता है।

  3. अंशभागी की कन्या का अर्थ सुधारना के दिन जीवित अंशभागी की कन्या ऐसा है। वैधानिक विभाजन पुनर्विचार का पात्र नहीं।

  4. विभाजन की आदेशपत्र को अंतिम स्वरूप देना चाहिए।

  5. जीवित रहने के तत्व को धारा 6 उपधारा 3 के अतिरिक्त किसी भी पद्धति से छीन लेना अभिप्रेत नहीं है।

  6. अधिनियम की प्रक्रिया से निर्मित वैधानिक कल्पना (legal fiction) को उसके उद्देश्य तक सीमित रखना चाहिए। वैधानिक कल्पना को उद्देश्य से अधिक नहीं खींचा जा सकता।

  7. धारा 6 उपधारा 3 के अनुसार वैधानिक विभाजन अविभक्त परिवार को समाप्त कर देता है।

  8. सुधारना से पहले केवल पुत्र को जीवित होने के तत्व पर समान अंशभाग मिलता था।

  9.  धारा 6 की सुधारना भविष्यलक्षी है। व्यवस्थापित प्रश्नों का पुनर्विलोकन करने का उद्देश्य नहीं है।

  10. धारा 6 उपधारा 5 के स्पष्टीकरण का विवेचन यह नहीं है कि वैधानिक विभाजन से अविभक्त परिवार के जीवित सदस्य का मिला हुआ अंशभाग वापस लिया जाए।

  11. नागरी प्रक्रिया संहिता की धारा 2 उपधारा 2 के अनुसार प्राथमिक आदेशपत्र अंतिम है। कन्या का दायित्व सुधारना के पश्चात आरंभ होता है। सुधारना पूर्वलक्षी नहीं है।

  12. ऐसा माना जाए कि सुधारना पूर्वलक्षी है, फिर भी सुधारना के पूर्व हुए वैधानिक विभाजन, न्यायालय के आदेशपत्र तथा विधिवत हस्तांतरण कालमर्यादा के अधिनियम द्वारा बाधित होंगे। तथा वैधानिक विभाजन के पश्चात संपदा अविभक्त संपदा नहीं रहेगी। स्वसंपादित संपत्ति बन जाएगी।

  13. पूर्वसंबंध के तत्व (The theory of relation back) के अनुसार दत्तक विधान में पूर्वव्यवहार की रक्षा की जानी चाहिए। इस प्रकार धारा 6 का प्रावधान भविष्यलक्षी है।

14. विद्वान समूपदेशक श्री अमित पै इस विषय में युक्तिवाद करते हैं कि: 

  1. शब्दश: विवेचन (rule of literal construction) का स्वर्णिम नियम स्वीकारना चाहिए।

  2. काल्पनिक (notional) विभाजन वास्तविक विभाजन नहीं है। उद्दिष्ट और कारण देखे जाए तो धारा 6 को उसका संपूर्ण परिणाम देना चाहिए और कन्या को समानता के अधिकार से वंचित नहीं करना चाहिए।

  3. प्रकाश वर्सेस फूलवती का न्यायनिर्णय सुधारित अधिनियम को योग्य पद्धति से प्रस्तुत नहीं करता। जीवित अंशभागी की जीवित कन्या यह शब्द न्यायालय द्वारा धारा 6 में डालें गए हैं। जबकि ऐसा करने का कोई अधिकार न्यायालय को नहीं है। न्यायालय केवल अधिनियम में हुई चूक को सुधार सकता है। या फिर अधिनियम में छूट गई प्रावधान को उपलब्ध करा सकता है। इसका अर्थ यह है कि, केवल अधिनियम ही ऐसी किसी संकल्पना को उपलब्ध करा सकता है। जैसे कि जीवित अंशभागी की जीवित कन्या। अर्थात धारा 6 शुरू जीवित कन्याओं का समावेश करती है।

15. विद्वान समूपदेशन श्री समीर श्रीवास्तव इस विषय में युक्तिवाद करते हैं कि:

  1.  कन्या को धारा 6 उपधारा 1 और 5 के निर्बंधोंको ध्यान में रखते हुए अंशभाग प्राप्त हो सकता है। सहभागी (copercener) की व्याख्या उत्तराधिकार अधिनियम (succession act) में नहीं है। व्याख्या को (1997) 10 SCC 684 से लेना पड़ेगा।

  2. सुधारना से पहले हिंदू पुरुष जन्म से अधिकार पता था तथा मृत्युपत्रीय (testamentary) एवं  अमृत्युपत्रीय (intestate succession) का अधिकारी था। जिसके विषय में धारा 6 उपधारा 1 और 2 में प्रावधान किया गया है। सुधारना के पश्चात धारा 6 उपधारा 3 में मृत्यु के परिणाम बताए गए हैं। जीविता के तत्व को नकारा गया हैं।

  3. प्रकाश वर्सेस फूलवती में बताया गया जीवित अंशभागी की जीवित कन्या का नियम अतर्कसंगत और दोषपूर्ण है।

16. विद्वान समूपदेशक मिसेस अनघा एस. देसाई इस विषय में युक्तिवाद करती है कि, धारा 6, 9 सितंबर 2005 से स्त्री और पुरुष अंशभागीयों में समानता लाती है।

17. सुधारना के वक्त अंशभागी और कन्या को जीवित होना आवश्यक नहीं है। यदि इसे आवश्यक बनाया गया तो सुधारना की मूल उद्दिष्ट को धक्का पहुंचेगा। पुत्र जैसे जन्मों के साथ मिलने वाले अधिकार कन्या को दिए गए हैं। किंतु मापन और सीमांकन (metes and bounds) देखकर यदि पहले ही विभाजन हुआ है तो कन्या फिर से विभाजन नहीं मांग सकती।

सर्वोच्च न्यायलय कि दृष्टि से इस विषय में ऐतिहासिक पार्श्वभूमि कुछ इस प्रकार

है:

18. मूलभूत हिंदू विधि वेद, उनके पश्चात श्रुति और स्मृति से प्रभावित है। हिंदू विधि कि दो मुख्य शाखाए है। मिताक्षरा और दयाभागा। मिताक्षरा कि बनारस, मिथिला, महाराष्ट्र और द्रविड़ ऐसी चार उपशाखाएं हैं।

19. मिताक्षरा शाखा का प्रदेश निहाय कार्यवहन होता था। राज्य पुनर्रचना अधिनियम, 1956 (the state reorganisation act, 1956) के पश्चात बनारस और महाराष्ट्र नियमों में कार्यवहन के विषय में संदिग्धता निर्माण हो गई।

20. मिताक्षरा का प्रभाव बंगाल छोड़ संपूर्ण भारत पर है। उत्तर भारत में महाराष्ट्र शाखा, पश्चिम भारत में मुंबई शाखा, तथा दक्षिण भारत में अनेक स्थानों पर मारुमक्कठयम, अलीयसंतन और नंबूदिरी नियम की व्यवस्था प्रभावी है।

21. हिंदू नियम सदैव प्रगतिशील रहे हैं। ना कि कठोर। हिंदू नियमों के स्रोत अनेक है।

सहभागिता और अविभक्त हिंदू परिवार के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायलय के विचार कुछ इस प्रकार है:

22. अविभक्त हिंदू परिवार सहभागिता से बड़ी संकल्पना है। हिंदू परिवार संपदा, पूजा और अन्न के विषय में अविभक्त होता है। केवल पूजा और अन्न के विषय में स्वतंत्र होने से वह विभक्त नहीं माना जाता।

23. सहभागिता एक छोटी संस्था है। जिसमें पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र तक की तीन पीढ़ियों का समावेश संपदा धारण करने के विषय में होता है। सहभागिता तीन वंशजों तक सीमित रहती है।

24. सहभागिता संपदा वह है जो एक हिंदू अपने पिता, पितामह या प्रपितामह से ग्रहण करता है। अन्य व्यक्ति से ग्रहण की गई संपदा सहभागिता संपदा नहीं है। सहभागिता की संपदा अंशभागी सहधारक के रूप में धारण करते हैं।

25. सह्धारक का अधिकार जन्म से या दत्तक विधान से प्राप्त होता है। प्रप्रपौत्र विभाजन नहीं मांग सकता। 9 सितंबर 2005 के पश्चात कन्या को पुत्र जैसे अधिकार प्राप्त हुए हैं।

सहभागिता स्थापित होने के विषय में सन्माननीय सर्वोच्च न्यायलय का निरिक्षण यह है कि:

26. सहभागिता कि मूल संकल्पना सहधारक के द्वारा सामुदायिक धारणा होना है। सहधारक के अधिकार के रूप में अंशभाग जन्म के साथ घटता है और मृत्यु के साथ बढ़ता हैं।

27. Sunil Kumar and another versus Ram Prakash and others (1988) 2 SCC 77 के अनुसार सहभागिता के जन्म और सपिंडता के आवश्यक तत्व के विषय में चर्चा की गई है। अविभक्त हिंदू परिवार में संपदा नहीं, किंतु सपिंड संबंध सदस्यों को एक साथ बांधते है। सहभागिता में जन्म से या दत्तक विधान से अधिकार प्राप्त होता है। केवल पुरुष सदस्य को।

28. अंशभाग की संपदा किसी एक पुरुष के हाथ में हो तो वह तात्कालिन (temporary) स्वतंत्र संपदा होती है। उस पुरुष को यदि कोई पुत्र होता है, जन्म से या दत्तक से, तो वह संपदा तत्काल सहभागिता संपदा बन जाती है।

29. घमण्डीराम केस में सहभागिता स्थापित होने के विषय में चर्चा की गई है। इसे प्रकार अधिकार जन्म से या दत्तक विधान से पुत्र को प्राप्त होता है।

30. सहभागिता कि विषय में अलादी कुप्पूस्वामी का विवाद महत्वपूर्ण है। हिंदू सहभागिता के 6 महत्वपूर्ण विशेषण दिए गए हैं। 1. तीन पीढ़ियों तक अधिकार प्राप्त होता है। सहधारक जन्म से अधिकार प्राप्त करता है, ना कि पूर्वज का प्रतिनिधित्व करने से, 2. सह्धारक को विभाजन की मांग करने का अधिकार प्राप्त है। 3. जब तक विभाजन नहीं हो जाता सारी की सारी संपदा सामुदायिक संपदा होती है। और तब तक किसको कितना अंशभाग मिलेगा यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता। 4. इस कारण संपदा कि या अभीपत्ति (possession) और धारणा (ownership) भी सामुदायिक होती है। 5. सारे सह्धारकों के एकमत के सिवाए संपदा को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। केवल वैधानिक आवश्यकता होने पर एकमत के सिवाए हस्तांतरण किया जा सकता है। 6. मृतक का अधिकार मृत्यु के साथ समाप्त होकर सहभागिता में समाविष्ट हो जाता है। विधवा के विषय में विभाजन अधिनियम, 1937 उपयुक्त है। 1937 के अधिनियम के अनुसार विधवा को अधिकार मिलता हैं।

31. विधवा विभाजन नहीं मांगती है तो उस अवस्था में सहताभागिता समाप्त नहीं होती। विधवा का अधिकार उसके मृत्यु के पश्चात सहभागिता में समाविष्ट हो जाता है। पुत्र को पिता के प्रतिनिधि के रूप में अधिकार नहीं मिलता। पुत्र को जन्म के आधार पर अधिकार मिलता है।

32. विधवा विभाजन नहीं मांगती तो सहभागिता  समाप्त नहीं होती। विधवा का अधिकार उसके मृत्यु के पश्चात सहभागिता में समाविष्ट हो जाता है। विभाजन अधिनियम, 1937 धारा 3 उपधारा 2 की चर्चा की गई है।

33. सहभागिता हिंदू विधि से बनती है। किसी बंधपत्र से नहीं बन सकती। वह उत्तराधिकार से चलती है। जीविता के तत्व के आधार पर नहीं।

34. हिन्दू अविभक्त परिवार में हिंदू नियमों द्वारा कन्या को अंशभाग नहीं मिलता यह कहना प्राथमिक तौर पर उचित नहीं है। तथा सहभागिता अविभक्त परिवार से छोटी संस्था है। सहभागिता में केवल तीन पीढ़ियाँ समाविष्ट है। सहभागिता में केवल जन्म से अधिकार प्राप्त होता है। हिंदू अविभक्त परिवार में एक मूल पुरुष के वंशज, उनकी पत्नियां और कन्याएं समाविष्ट होती है। कन्या विवाह के पश्चात पिता के परिवार में सदस्यता प्राप्त करना त्यागती है और पति के घर में सदस्यता प्राप्त करना आरंभ करती हैं। सपिंड होना हिंदू अविभक्त परिवार का मूलभूत गुण वैशिष्ट्य है। सुरजीत लाल छाबड़ा वर्सेस कमिश्नर ऑफ इनकम टैक्स मुंबई की केस में अविभक्त हिंदू परिवार और अंशभाग में जो भेद है वह वर्णन किया गया है।

35. अविभक्त हिंदू परिवार में विधवा जब तक विभाजन कर स्वतंत्र नहीं होती तब तक वह अविभक्त हिंदू परिवार की सदस्य बनी रहती है। पति के अधिकार उसे पति के पश्चात अविभाक्त हिंदू परिवार में प्राप्त होते हैं। किंतु सहभागिता में जीवित सदस्यों में अधिकार जन्म के साथ कम होता है और मृत्यु के साथ बढ़ता है। मिताक्षरा शाखा कि प्रकार दयाभागा शाखा में सहभागिता में जन्म मृत्यु से न्यून अधिक नहीं होता। दयाभागा में हर सदस्य एक निश्चित अंशभाग पाता है। किंतु अभिपत्ति (possession) सामुदायिक होती है। इसलिए विधवा को धारा 6 स्पष्टीकरण 1 के अनुसार स्वतंत्र अंशभाग देकर अविभक्त हिंदू परिवार से बाहर जाने की अनुज्ञा दे देनी चाहिए। न्यायिक कल्पना को उसके तार्किक अंत तक ले जाया जा सकता है उससे आगे नहीं। A Legal fiction should no doubt ordinarily be carried to its logical end to carry out the purposes for which it is enacted but cannot be carried beyond that. इसलिए विधवा का अंशभाग निश्चित करने के पश्चात अन्य सदस्य अविभक्त हिंदू परिवार को आगे बढ़ाते हैं और एक साथ चलाते हैं। किसी एक का अंशभाग निश्चित करने के पश्चात अविभक्त हिंदू परिवार समाप्त नहीं होता।

36. एकत्रित धारणा तथा ‘समुद्विका स्वत्व’ का तत्व इस परिच्छेद में स्पष्ट किया गया है। सहभागिता में लेखांकन न्यून अधिक होता रहता है। जब तक विभाजन होकर अंशभाग स्वतंत्र नहीं होता तब तक सहभागिता की संपदा एकत्रित धारण की जाती है।

37. यह न्याय का स्थापित तत्व है कि सहभागिता में सदस्य का अंशभाग काल के साथ परिवर्तित होता रहता है। एन. आर. राघवचरियार की हिंदू लॉ प्रिंसिपल्स एंड प्रेसिडेंट्स पुस्तक की आठवीं एडिशन (1987) के पान 230 पर कहां गया है कि सहभागिता में सह्धारक के अधिकार 8 प्रकार के होते हैं। जैसे : १. जन्मगत अधिकार, २. जीविता तत्व के आधार पर अधिकार, ३. विभाजन का अधिकार, ४. सामुदायिक अभीपत्ती और उपभोग का अधिकार, ५. अनधिकृत कृत्य को रोकने का अधिकार, ६. हस्तांतरण का अधिकार, ७. लेखांकन मांगने का अधिकार, और ८. स्वसंपदित संपदा निर्माण करने का अधिकार. जीविता तत्व से अविभक्त हिंदू परिवार के होने ना होने पर कोई प्रभाव नहीं होता। किंतु सहभागिता में मृतक का अंशभाग जीविता तत्व से जीवित सहधारक का अंशभाग बढ़ाता है। मानसिक रोगी सहभागिता में जन्म से सहधारक का मान तो पाता है किंतु मानसिक रोगी को अंशभाग नहीं मिलता। यहां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय निर्णय के परिच्छेद 37 का पान क्रमांक 45 और 46 पे जीविता तत्व पर किया हुआ परीक्षण मूलतः अभ्यास करने योग्य है।

38. सहभागिता में अंशभाग समान रूप से मिलता है। किंतु अंशभाग स्थिर नहीं होता। जीविता के तत्व के अनुसार अंशभाग मृत्यु से बढ़ता है और जन्म से कम होता है।

39. सहभागिता में अंशभाग स्थिर नहीं होता।

40. केवल प्रत्यक्ष विभाजन के पश्चात सहधारक को निश्चित अंशभाग प्राप्त हो सकता है। अन्यथा सहधारक का अंशभाग 'अविभक्त अंशभाग अधिकार' है। जब तक विभाजन नहीं होता हर सहधारक संपदा के हर भाग का धारक होता है, सामुदायिक रूप से।

41. जब तक प्रत्यक्ष विभाजन नहीं हो जाता संपदा अविभक्त परिवार की संपदा बनी रहती हैं। किसी भी सदस्य को अपने एकमात्र कृति से अविभक्त पारिवारिक संपदा को व्यक्तिगत संपदा में परिवर्तित करने का अधिकार नहीं है।

42. ऐसा अनुमान (presumption) नहीं किया जा सकता की, विभाजन के पश्चात एक सदस्य उसके अंशभाग के साथ स्वतंत्र हो जाता है तब उर्वरित संपदा उर्वरित सहधारको के पास सामुदायिक संपदा के रूप में अविभक्त परिवार में अव्याहत बनी रहती है। एक विभाजन का अर्थ सारे स्वतंत्र हो जाते हैं।

अप्रतिबंधित और प्रबंधित धरोहर के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के यह विचार है कि:

43. मिताक्षरा सहभागिता में अप्रतिबंधित धरोहर और प्रतिबंध धरोहर के विषय में वर्णन किया गया है। जब अंतिम पुरुष सहभागिता में कोई भी पुरुष उत्तराधिकारी छोड़े बिना मृतक हो जाता है तो उसने जो धरोहर छोड़ी है उसे प्रतिबंध धरोहर (obstructed heritage) कहता हैं। योग्य उत्तराधिकारी के अस्तित्व के बिना निर्माण होने की वजह से इस अधिकार को प्रतिबंधित धरोहर कहता हैं। अंतिम पुरुष के मृत्यु से प्रतिबंधित धरोहर निर्माण होती है। जहां पुरुष जन्म से या दत्तक विधान से सीधा अधिकार प्राप्त करता है वह अर्थात ही अप्रतिबंधित धरोहर (unobstructed heritage) कहलाती है। पालक, भ्राता, भतीजा, चाचा इत्यादि के हाथ में अंतिम धारक के पश्चात जाने वाली संपदा प्रतिबंधित धरोहर है। प्रतिबंधित धरोहर के पात्र संबंधी जन्म से अधिकार नहीं प्राप्त करते हैं। उनके पास जाने वाला अधिकार spes successionis तथा उत्तराधिकार के आशा के तत्व के आधार पर प्राप्त होता है। अप्रतिबंधित धरोहर तो केवल जन्म या दत्तक विधान से जीविता तथा survivorship के द्वारा बिना प्रतिबंध प्राप्त होती है।

44. अप्रतिबंधीत धरोहर जन्म से प्रथम प्रतिबंधित धरोहर धारक की मृत्यु से अस्तित्व में आती है। धारा 6 से प्राप्त होने वाली धरोहर अप्रतिबंधित धरोहर (unobstructed heritage) है। जो जन्म से प्राप्त होती है। इसलिए नए सुधारना के अनुसार 9 सितंबर 2005 को सहधारक पिता का जीवित होना आवश्यक नहीं। 

1956 के अधिनियम के धारा 6 कि विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि,

45. मिताक्षरा शाखा में पुरुष स्त्री संबंधी को, ज्योंकि अनुसूची की श्रेणी 1 में संबंधी के रूप में दिखाई दी है, जीवित छोड़ता है तो मृतक के अधिकार का उत्तराधिकार जीविता तत्व के आधार पर नहीं किंतु 1956 में के अधिनियम के अनुसार होगा।

46. यंहा पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुधारना के पश्चात धारा 6 में पूर्ण रूप से नया प्रावधान लाया गया है वह प्रावधान प्रतिस्थापित (extracted) किया गया है। यह सुधारना मूलत: अभ्यास करने योग्य है।

47. इस महत्वपूर्ण न्यायनिर्णय के परिच्छेद 47 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस सुधारना के घोषित करने के संसद के उद्देश और कारणों को विशद किया है। 

48. सुधारना के पूर्व धारा 6 के अनुसार जीविता के तत्वों के आधार पर अधिकारों का गठन जीवित मिताक्षरा पुरुष सहभागिता में किया जाता था।

49. विधवा या कन्या को विभाजन के समय पर सह्धारक नहीं माना जाता था।

50. संविधान के अनुच्छेद 14 का भंग धारा 6 के कारण होता है। पुत्र और कन्या में भेदभाव हो जाता है। अविवाहित कन्या और विवाहित कन्या में भेदभाव हो जाता है।

51. सुधारना विधेयक राज्यसभा में आने से पहले अर्थात 20 दिसंबर 2004 से पहले जो हस्तांतरण हुए हैं वह सुधारना के कारण प्रभावित नहीं होंगे।

52. मिताक्षरा शाखा के अनुसार आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केरला इन प्रदेशों में समानता साधने के लिए परिवर्तन लाए गए थे। मिताक्षरा सहभागिता में धारा 6 के सुधारना अनुसार स्त्री और पुरुष सह्धाराको में असमानता पूर्ण रूप से निकाल दी गई है।

53. क्लास वन उत्तराधिकारीयों कि अनुसूची दि गयी  है। इस विषय में फिर से सुधारना पूर्व  धारा 6 का विवेचन किया गए हैं।

54. स्पष्टीकरण 1 में विभाजन होने की वैधानिक कल्पना की गई है। किंतु मृत्यु पत्र के बिना मृतक हुए सहधारक के हिस्से को कोई स्वतंत्र हिंदू अधिकार के रूप में नहीं मांग सकता।

55. अब सुधारना के पश्चात कन्या को पुत्र के समान अधिकार प्राप्त हो गए हैं। सुधारना 9 सितंबर 2005 से लागू होती है किंतु सुधारना का कार्यवहन पूर्व सक्रियता से होगा। Though the rights can be claimed with effect from 9th September 2005, the provisions are retroactive application.

56. भविष्यलक्षी अधिनियम, पूर्वलक्षी अधिनियम तथा पूर्वसक्रिय अधिनियम इन तीनों में जो अंतर है वह सन्माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस परिच्छेद में सुंदरता से स्पष्ट किया है। जैसे भविष्यलक्षी अधिनियम अस्तित्व में आने के दिन से अधिकारों को प्रभावित करता है। पूर्वलक्षी अधिनियम मूल अधिनियम के दिन से भूतकाल में जाकर अधिकारों को प्रभावित करता है। तथा पूर्वसक्रिय अधिनियम पूर्वलक्षी प्रभाव से कार्य नहीं करता किंतु भविष्य काल में अधिकारों को निर्माण करता है भविष्य काल में सक्रिय होता है। पूर्व सक्रिय अधिनियम किस पद्धति से कार्यान्वित होगा वह सुधारना से पहले जो नियम थे वह किस प्रकार के थे उस पर आधारित होता है, किंतु उसका आधार भूत काल में निर्माण हुं अधिनियम होता है। जैसे कोई गुणधर्म या घटना भूतकाल में घटी हो, और ऐसी प्रभावित करने वाली घटना से कोई आवश्यक तत्व निकलता हो। धारा 6 के अनुसार कन्या को जन्म से अधिकार प्रदान किए गए हैं। अधिकार 9 सितंबर 2005 को प्रदान किए गए हैं किंतु जन्म की घटना भूतकाल में घटित हो चुकी है। इस कारण भूतकाल में घटे जन्म का प्रभाव आज होने वाली सुधारना पर पड़ेगा तथा भविष्य काल में निर्माण होने वाले अधिकारों को भी प्रभावित करेगा।

57. सम्माननीय सर्वोच्च न्यायालय इस परिच्छेद में पूर्वलक्षी और पूर्वसक्रिय में अंतर और भी सुंदरता से स्पष्ट करते हैं। इस में Black’s Law Dictionary का आधार लिया गया है। तथा Halsbury’s Laws of England का भी आधार लिया गया है। यह सब मूलरूप से वाचनीय और अभ्यासनीय है। सामान्यतः समझने के लिए, पूर्वलक्षी अधिनियम सुधारना से पूर्व अस्तित्व में होने वाले अधिकार प्रभावित करता है। तथा पूर्वसक्रिय अधिनियम नए निर्माण होली वाले अधिकारों को प्रभावित करता है। 

58. जी. शेखर वर्सेस गीता एंड अदर्स (2009) 6 SCC 99 मे सुधारित अधिनियम 2005 की धारा 3 को भविष्यलक्षी बताया गया है।

59. धारा 23 और धारा 8 नए सुधार के पश्चात निवासी संपदा के विषय में कार्यान्वित होंगे या नहीं होंगे यह प्रश्न उठाया गया।

60. धारा 6 उपधारा 2 प्रावधानीत करता है कि धारा 6 उपधारा 1 के अनुसार कन्या को कठिन सहभागिता धारणा का पालन करना पड़ेगा। कन्या संपदा को मृत्यु पत्र द्वारा हस्तांतरित कर पाएंगे।

61. अब सुधारना के पश्चात किसी भी हिंदू की मृत्यु होने पर धारा 6 उपधारा 3 के अनुसार मृत्यु पत्र के अनुसार या वंश परंपरा से अधिकार हस्तांतरित होगा। उस व्यक्ति का अधिकार जीविता के तत्व के पर स्थान पर सुधारना के आधार पार होगा। मृतक के उत्तर अधिकारियों में सहधारक का अंशभाग निश्चित करने के लिए विभाजन की कल्पना की जाएगी। कन्या को पुत्र जितना अंशभाग मिलेगा। मृतक के पूर्व मृत हुई उसके कन्या की कन्या और कन्या के  पुत्र को भी अंशभाग मिलेगा। यदि ऐसी कन्या और पुत्र का मृत्यु मृतक से पहले हुआ है, तो उस कन्या और कन्या की कन्या और पुत्र को मृतक के कन्या का अंशभाग मिलेगा। उस प्रकार से मिलेगा की वह कन्या मृतक के मृत्यु के समय जीवित थी। और यह माना जाएगा की ऐसी कन्या को मृत्यु के पश्चात कल्पित विभाजन के अनुसार अंशभाग मिला था। इस विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि यह समुद्र जितना बड़ा परिवर्तन है। धारा 6 उपधारा 3 के उपउपधारा 1 के अनुसार 9 सितंबर 2005 के पश्चात मृतक होने वाले सहधारक के उत्तराधिकार का निर्णय किया जाएगा, ना के जीविता के आधार पर। धारा 6 (3) का स्पष्टीकरण 1 मूल धारा 6 के स्पष्टीकरण जैसा ही है। धारा 6 उपधारा 4 कन्या को पुत्र जैसा दायित्व प्रदान करती है। कन्या, पोती, पोती की कन्या सभी उस पावन दायित्व को निभाने के लिए पुत्र की जैसे बाध्य है। यह प्रावधान सुधारना से पहले के ऋणदाता के अधिकारों की रक्षा करता है। धारा 6 उपधारा 4 का प्रावधान संपूर्ण सुधारना को पूर्वलक्षी ना होने का संकेत देता है।

52. धारा 6 के उपधारा 1 और उपधारा 5 की स्पष्टीकरण में किया प्रावधान राज्यसभा में सुधारना विधेयक आने से पहले के अर्थात 20 दिसंबर 2004 के पहले के पंजीकृत विभाजन पत्र की रक्षा करता है। किंतु और किसी अन्य प्रकार के विभाजन पत्र को या विभाजन को मान्यता नहीं देता।

53. कन्या पुत्र के जैसे अधिकार प्राप्त करेगी। सहभागिता से अंशभाग प्राप्त करने के कन्या के लिए सुधारना के दिन कन्या के पूर्वाधिकारी का जीवित होना आवश्यक नहीं है। सुधारना के पहले या फिर सुधारना के पश्चात कन्या का जन्म हुआ है तो दोनों ही सूरत में कन्या को धारा 6 के अनुसार अधिकार प्राप्त होगा। किंतु कन्या को 9 सितंबर 2005 के पश्चात अधिकार प्राप्त होगा। उससे पहले हुए व्यवहार कन्या पर बाध्य होंगे धारा 6 उपधारा 1 और 5 के अनुसार।

54. कन्या को नए सुधारना के अनुसार अंशभाग प्राप्त होने के लिए 9 सितंबर 2005 को अंशभाग अस्तित्व में होना आवश्यक है। 9 सितंबर 2005 के पश्चात कोई अंशभागी मृतक हो जाता है तो उनका उत्तराधिकारी जीविता तत्व के आधार पर नहीं किंतु सुधारित धारा 6 (3) के अनुसार मृत्यु पत्र के आधार पर या बिना मृत्यु पत्र के निश्चित होगा।

कन्या के अधिकार के विस्तार के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं:

55. सुधारना से पहले श्रेणी एक के सहधारक की ओर से जो सहधारक मांग सकते थे कन्या उनमें से एक थी। सुधारना के पश्चात कन्या के अधिकार का विस्तार हुआ है। और किसी के अधिकारों पर अतिक्रमण नहीं हुआ।

56. विभाजन की कल्पना केवल मृतक सहधारक के विषय में की जाती थी। कन्या को अंशभाग नहीं मिलता था। अब वह अन्याय दूर हो चुका है और नई सुधारना भारतीय राज्यघटना के साथ चल रही है।

57. अकेला पुरुष सहधारक संपदा को व्यक्तिगत संपदा के तौर पर धारण करता है। पुत्र के जन्म पर वही संपदा सहभागिता बन जाती है। विधवा और मृतक के कन्या के पास संपदा अविभक्त हिंदू परिवार की संपदा के रूप में आती है। विधवा के दत्तक विधान करने के पश्चात दत्तक पुत्र सहधारक बन जाता है। दत्तक पुत्र को दत्तक से पहले हो चुके हस्तांतरण को मान्य करना पड़ता है। यह सुधारना से पहले की स्थिति थी।

सहभागिता की संपदा में अधिकार प्राप्त होने के विषय में सम्माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि:

58. 1956 से पहले केवल जीविता के तत्व पर अधिकार प्राप्त होता था। 1956 के पश्चात सुधारना से पहले स्त्रियों को उत्तराधिकार मिलना आरंभ हुआ। अब धारा 6 में सुधारना के पश्चात न्यायिक कल्पना के अनुसार कन्या को सह्धारक माना गया है। मर्यादित संबंधों में जन्म या दत्तक विधान से अधिकार प्राप्त होते हैं। किंतु केवल अधिकार प्राप्त होने पर व्यक्ति को सहधारक नही माना जाता है।

59. सम्माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस परिच्छेद में कन्या के अधिकार के विषय में बहुत ही सुंदर विवरण किया है। सम्माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, 2005 के सुधारना से पहले जीविता के तत्वों के आधार पर यह कहा जाता था कि मृतक का अंशभाग जीवित सहधारक के अंशभाग में डाल दिया जाता है। इसके कारण पिता का अंशभाग पिता के मृत्यु के पश्चात अन्य जीवित पुरुष सहधाराको के अंशभाग में सम्मिलित हो जाता था। तथा कन्या के लिए पिता के अंशभाग में कोई अंशभाग नहीं बचता था। इस युक्तिवाद को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अब मानने से यह कहकर नकारा है कि यह कन्या के विरोध में बहुत ही अन्यायकारक है। सुधारना के पश्चात पिता की मृत्यु से कन्या को अधिकार प्राप्त नहीं होता। कन्या को जो अधिकार मिला है वह कन्या का जन्मगत अधिकार है। धारा 6 (1) के अनुसार प्राप्त होने वाला अधिकार जन्म से प्राप्त होता है, न की जीविता के तत्वों के आधार पर। जीवित सह्धारक के मृत्यु के पश्चात कन्या को अधिकार प्राप्त होता है ऐसा अनुमान लगाना उचित नहीं है। धारा 6 (1) के अनुसार कन्या को जो अधिकार प्राप्त हुआ है उस अधिकार को उस अधिकार की तार्किक सीमा तक ले जाना आवश्यक है। जो अधिकार कन्या को निश्चित रूप से अधिनियम ने दिया है उस अधिकार को नकारना उचित नहीं। मिताक्षरा शाखा का जीविता तत्व 9 सितंबर 2005 से धारा 6 उपधारा 3 के अनुसार समाप्त किया गया है। यह विवरण मूलतः अभ्यास करने योग्य है।

60. जिस पद्धति से पुत्र को जन्म या दत्तक विधान के आधार पर अधिकार प्राप्त होता है, धारा 6 के अनुसार उसी पद्धति से कन्या को जन्म के आधार पर अधिकार प्राप्त होता है। जन्म के आधार पर अधिकार की मांग महत्वपूर्ण है और यह मांग उत्तराधिकार के प्रकारों से भिन्न है।

61. इस विषय में संसद का मानस 2005 से पहले जन्म होना पर्याप्त है ऐसा मानने का था तो संसद धारा 6 (1) को उपलब्धि नहीं जोड़ता। इस सभा में प्रस्तुत सुधारना आने से पहले 20 दिसंबर 2004 के पहले के पंजीकृत हस्तांतरण को अवैध होने से बचाने का संसद का मानस है। 9 सितंबर 2005 से कन्या को अधिकार प्राप्त होता है।

62. विभाजन के विषय में धारा 6 (1) की उपलब्धि और धारा 6 (5) के प्रावधान पर्याप्त है। पिता तथा अन्य सहधारक की मृत्यु पर सहधारक विभाजन हि नही कर चुके हैं, किंतु उस विभाजन का कार्यवहन भी कर चुके हैं तो ऐसे व्यवहार को अस्वस्थ करना धारा 6 (1) की उपलब्धि के अनुसार संसद का मानस नहीं है।

63. भरकस व्यक्तिवाद किया गया कि, कन्या को भूतकाल में किसी भी समय अधिकार प्रदान किया गया तो न्याय व्यवस्था के सामान्य कार्यप्रणाली पर अनिश्चितता प्रभावित हो जाएगी। इस युक्तिवाद को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नकार दिया है। सम्माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि धारा ६ में परिवर्तन से कोई अनिश्चितता नहीं होगी क्योंकि वैसे भी मिताक्षरा शाखा की सहभागिता जब तक विभाजन प्रत्यक्ष कार्यान्वित नहीं होता तब तक अनिश्चित ही रहती है। अंशभाग के अधिकार के विषय में अनिश्चितता मिताक्षरा सहभागिता का पारंपरिक मूलभूत तत्व है। और इस मूलभूत तत्व को मरोड़ना ठीक नहीं है। जबकि कन्या को 9 सितंबर 2005 से जैसे उत्तर अधिकार जन्म के आधार पर प्राप्त हुए हैं जो कि इस विशिष्ट दिन से कार्यान्वित होते हैं। परिच्छेद  73 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिए गए परीक्षण मूलतः अभ्यासनीय है।

64. प्रकाश वर्सेस फूलवती की न्याय निर्णय में पिता की मृत्यु 1988 में हुई थी। कन्याओं ने 1992 में विभाजन के लिए विवाद पत्र प्रस्तुत किया था। सुधारना के पश्चात, 2007 में विवाद पत्र निकाल दिया गया। इस न्याय निर्णय में काल्पनिक विभाजन के आधार पर तथा धारा 6 की उपलब्धि के अनुसार मृतक पिता की काल्पनिक हिस्से में कन्याओं को अंशभाग प्रदान किया गया था। यह विवाद पत्र उच्च न्यायलय में आने पर प्रलंबित विवाद पत्र पर सुधारित धारा के प्रावधान लागू कर उच्च न्यायलय ने कन्याओं को पुत्र के समान अधिकार प्रदान किया। सम्माननीय सर्वोच्च न्यायालय में यह विषय आने पर सर्वोच्च न्यायालय ने उपलब्धि को पूर्वलक्षी नही होने की बात को योग्य होना निश्चित किया। तथा काल्पनिक विभाजन को पंजीकृत होना आवश्यक नहीं है यह भी निश्चित किया। परिच्छेद 74 में प्रकाश वर्सेस फूलवती की न्याय निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय की विचारधारा को पुनर्लिखित किया गया है। अभ्यास के लिए। 

65. परिच्छेद 75  का निरीक्षण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। तथा संपूर्ण विवेचन न्याय निर्णय का स्वरूप ले चुका है। सुधारित धारा 6(1)(a) से जन्मगत अधिकार, (b) से 9 सितंबर 2005 से पूर्व प्राप्त अधिकार की घोषणा (c ) से पुत्र के समान दायित्व, इन सभी बातों को माना गया हैं। प्रकाश वर्सेस फूलवती की न्याय निर्णय में मानी गई "जीवित सहधारक" (living coparcener) की संकल्पना में मान्यता रखने में यह न्यायालय स्पष्ट रूप से असमर्थ है, यह निश्चित किया गया है। 

66. Mangammal v. T. B. Raju & ors. के न्याय निर्णय में the Hindu Succession Tamil Nadu Amendment Act, 1989 धारा 29ए (आईवी) जो कि विवाहित कन्याओं के साथ अन्यथा व्यवहार करती हैं, उस धारा को नए सुधारित धारा 6 के अनुसार अन्यायकारी ठहराया गया है। मंगम्माल की न्याय निर्णय मे किए गए निरीक्षण को स्वीकृत किया गया है। तथा सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, इस विषय में आगे विश्लेषण करने के आवश्यकता नहीं है।

67. माननीय सर्वोच्च न्यायालय के विभागीय खंडपीठ के दानम्मा न्यायनिर्णय का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसी प्रकार खंडन किया गया है जिस प्रकार प्रकाश वर्सेस फूलवती निर्णय का किया गया है। 

68. दानम्मा न्यायनिर्णय में परिच्छेद 23 में कन्या को समान अधिकार दिया गया है। किंतु प्रकाश वर्सेस फूलवती के न्यायनिर्णय में जो विभाजन के विषय में निरीक्षण है वही निरीक्षण दानम्मा के न्यायनिर्णय में आने से माननीय सर्वोच्च न्यायालय को आपत्ति है।

विभाजन और वैधानिक कल्पना के परिणाम के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि,

69. विभाजन मांगने का अधिकार सहभागिता का बहुत ही महत्वपूर्ण गुण है। कन्या और पुत्र के अधिकार धारा 6(1) और 6(2) के अनुसार साथ साथ चलते हैं। किंतु सहधारक के पत्नी को भी समान अंशभाग प्राप्त है। सहधारक की पत्नी का अंशभाग मांगने का अधिकार छीना नहीं गया है।

70. जब विभाजन करने का है उद्दिष्ट दर्शाया जाता है तब सहधारक का अंशभाग स्पष्ट और निश्चित करने योग्य हो जाता है। Hardeo Rai v Shakuntala Devi & Ors. (2008) 7 SCC 46 में लिखित न्यायनिर्णय को सर्वोच्च न्यायालय मानता है। जब एक सहधारक का अंशभाग निश्चित हो जाता है तो वह संपदा सहभागिता की संपदा नहीं रहेगी। एक बार अंशभाग निश्चित होने पर उस अंशभाग का सहधारक धारक बन जाता है। और अपने हाथ में आए अंशभाग को अपने इच्छाशक्ति से हस्तांतरित कर सकते हैं, बिक्री, गिरवी रख सकता है। यह परिच्छेद तथा यह न्यायनिर्णय मूलतः अभ्यास योग्य है।

71. विधि का यह सुस्थिर विचार हे की विभाजन की सिवाए बेचना है तो अविभक्त अंशभाग को बेचा जा सकता है, ना कि विशिष्ट संपदा को। तथा विभाजन के सिवाए ऐसे हुए व्यवहार पर सामूहिक अभिपत्ती को विघटित नहीं किया जा सकता। अन्य सहधाराको की सम्मति लेना ना लेना मिताक्षरा शाखा के कौन सी उपशाखा को संबंधित सहधारक मानते है उस पर निर्भर करता है। जैसे कि बनारस शाखा में सम्मति लेना आवश्यक हैं।

72. Man Singh deceased by legal representatives versus Ram Kala deceased by legal representatives AIR (2011) SC 1542 की निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने निरीक्षण किया है कि, जब तक विभाजन नहीं हो जाता कोई निश्चित अंशभाग अनुमानित करना संभव नहीं। सहधारक की स्वतंत्र होने की इच्छा का असंदिग्ध प्रकटीकरण भी इस विषय में विचार में लेना चाहिए। इस न्यायनिर्णय में यह प्रश्न उठता है की यदि विभाजन नहीं हुआ है, तो धारा 6 की उपलब्धि के अनुसार काल्पनिक विभाजन से क्या सहभागिता विघटित हो जाएगी। इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है। मान सिंग की न्यायनिर्णय में यह निरीक्षण किया गया है कि, पत्नी पति के संपदा में बराबर की सहधारक है, पुत्र के साथ। इतना ही नहीं पत्नी पति के अलावा भी अपना स्वतंत्र अंशभाग उपभोग सकती है। पत्नी खुद से ही विभाजन नहीं मांग सकती। किंतु उसके पति और पुत्र में यदि विभाजन हो रहा है तो पत्नी अपना समान अधिकार मांग सकती है। इतना ही नहीं उस सामान अंशभाग को पाकर पति से स्वतंत्र उसका उपभोग भी ले सकती है। मान सिंग का यह न्यायनिर्णय बहुत ही सुंदर सरल और अभ्यास योग्य है। वाचक कृपया इसे स्वयं सखोलता से पढ़ें।

73. बहुत ही महत्वपूर्ण न्यायनिर्णयोन्को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने संबोधित किया है। Girja Bai v Sadashiv, AIR 1916 PC 104, और Kawal Nain v Prabhulal, AIR 1917 PC 39, तथा RAmlinga v Narayana, AIR 1922 PC 201 में प्रिवी काउंसिल कहती है की, किसी भी सदस्य द्वारा विभाजन का विवाद पत्र प्रस्तुत करना ही अपने आप में अविभक्त परिवार से विभक्त होने की स्पष्ट घोषणा है। तथा इस निर्णय के परिणाम स्वरूप यह बात संपूर्ण रुप से स्पष्ट हो जाती है कि विवाद पत्र के प्रस्तुति के समय से सहभागिता की संयुक्त स्थिति में विच्छेद हो जाता है। इसके परिणाम स्वरूप न्यायनिर्णय दिया गया हो या न दिया गया हो किंतु विवाद पत्र के प्रस्तुतीकरण से स्वतंत्र होने के अधिकार का दृढीकरण उसी दिन हो जाता है। प्रिवी कौंसिल की न्यायनिर्णय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय अधिक निरीक्षण देते हैं कि, यदि पश्चात विधि द्वारा कोई अधिकार मिल जाता है, या ऐसे कोई घटनाक्रम उपस्थित हो जाते हैं तो उनके परिणाम उनको प्राथमिक आदेशपत्र के पारित होने के पश्चात ही कार्यान्वित करना पड़ेगा।

74. Kedar Nath v. RAtan Singh, (1910) 37 IA 161 तथा Palani Ammal v. Muthuvenkatachala, AIR 1925 PC 49 में निरीक्षण किया गया है कि विभाजन का विवाद पत्र परखने से पहले और आदेशपत्र पारित करने से पहले पीछे लिया गया हो और वादी अंतिमत: स्वतंत्र होने का चयन नहीं करता हो। ऐसी अवस्था में यहां पर विवाद पत्र के प्रस्तुतीकरण से परिवार की संयुक्त स्थिति में विच्छेद नहीं होता।

75. Joala Prasad Singh v. Chanderjet Kuer, AIR 1938 Pat 278 में यह निरीक्षण किया गया है कि विवाद पत्र प्रस्तुत करना एक शक्तिशाली प्रमाण का भाग है, किंतु स्वतंत्र होने के इच्छा का निर्णायक प्रमाण नहीं है। इस विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय अपने निरीक्षण में कहता हैं कि विवाद पत्र के प्रलंबित होने के समय पर निर्माण होने वाले अधिकरण को स्वतंत्र होने के इच्छा से भ्रमित नहीं करना चाहिए।

76. Chokalingam v. Muthukaruppan, AIR 1938 Mad 849 में यह निरीक्षण किया गया है कि सम्मति से पारित किए गए आदेशपत्र से भी विच्छेदन पर परिणाम नहीं होता। यदि आदेशपत्र का कार्यवहन नही होता और सदस्य साथ में रहना जारी रखते हैं तथा स्वतंत्र होने के निर्णय को छोड़ देते हैं तो सम्मति से पारित किए गए आदेशपत्र का कोई वैधानिक स्थान नहीं रहता।

77. Mukund Dharman Bhoir & ors. V. Balkrishna Padmanji & Ors. AIR 1927 PC 224 में दो स्पष्ट विभाग किए गए हैं। पहला जहां पर संयुक्त स्थिति से स्वतंत्र होने का ने संदिग्ध घोषणा द्वारा तथा वर्तन से घोषित किया हुआ एक व्यक्तिगत निर्णय होता है। दूसरा जहां पर संपदा के अंशभाग किए जाते हैं, या तो अंशभाग देने से, निजी व्यवस्थापन से, या लवाद से, या अंतिम मार्ग के रूप में न्यायालय से, तथा अन्य पद्धति से अंशभाग किए जाते हैं।

78. पलानी अमल केस, Ramabadra v Gopalaswami, AIR 1931 Mad 404 और Gangabai v. Punau Rajwa, AIR 1956 Nag 261 कि न्याय निर्णय में यह निश्चित किया गया है की केवल प्रति सदस्य अंशभाग कि, निश्चितिकरण से संयुक्त परिवार विचलित नहीं हो जाता। विभाजन घटित होने के लिए त्वरित स्वतंत्र होने की इच्छा से अंशभाग का निश्चितीकरण होना आवश्यक है।

79. Poornandachi v. Gopalasami, AIR 1936 PC 281 में विभाजन पत्र से केवल 1 सदस्य को उसका अंशभाग दिया गया। विभाजन पत्र में यह प्रावधान किया गया की अन्य संपदा संयुक्त रहेगी। न्यायालय द्वारा यह निश्चित किया गया कि उर्वरित सदस्यों में कोई विभाजन नहीं हुआ। I.T. Officer, Calicut v N. K. Sarada Thampatty, AIR 1991 SC 2035 में यह निश्चित किया गया कि प्राथमिक आदेशपत्र पारित होना विभाजन प्रस्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। अंतिम आदेशपत्र से प्रत्यक्ष भौतिक विभाजन कार्यान्वित होने पर ही विभाजन अंतिमत: प्रस्थापित होगा।

80. यह बहुत ही महत्वपूर्ण न्यायनिर्णय है तथा इस न्यायनिर्णय के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निरीक्षण सखोल अभ्यास योग्य है। Sai Reddy v. S. Narayan Reddy and others (1991) 3 SCC 647 में यह निश्चित किया गया कि जब तक अंतिम आदेशपत्र पारित नहीं होता, जब तक हिस्से की प्राप्त कर्ता को उसकी प्राप्त संपदा की अभिपत्ती में नहीं रखा जाता, तब तक विभाजन संपूर्ण नहीं होगा। प्राथमिक आदेशपत्र से विभाजन अंतिम नहीं हो जाता। इसका यह कारण है कि, अंतिम आदेशपत्र के आने तक बीच में घटी घटनाएँ निसर्गत: अंशाभाग के प्रमाण पर परिणाम करती हैं। प्राथमिक आदेशपत्र ऐसी कोई स्थिति नहीं उत्पन्न नही करता जिसे परिवर्तित ना किया जा सके। यहां पर the Hindu Succession Tamil Nadu Amendment Act, 1989, धारा 29A की सुधारना के विषय में विस्तृत रूप से विवरण किया गया है। यह विवरण मूल रूप से अभ्यासनीय है।

81. Prema v. Nanje Gowda, AIR 2011 SC 2077 की न्यायनिर्णय में the Hindu Succession Act, 1956 की अधिनियम में धारा 6ए Karnataka amendment को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विचार में लिया है। इस निर्णय में अविवाहित कन्या की विषय में भेदभाव का जो चलन था उसे हटाया गया है। कर्नाटक राज्य सुधार के धारा 6A के अनुसार अविवाहित कन्या को पुत्र जितना अंशभाग प्राप्त हुआ है। प्राथमिक आदेशपत्र और अंतिम आदेशपत्र के मध्यंतर में जो परिस्थिति में परिवर्तन आएगा उस परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए न्यायालय को अंतिम आदेशपत्र पारित करना चाहिए। अंतिम आदेशपत्र पारित होने पर ही विभाजन संपूर्ण होगा। मध्यंतर में हुए परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए उचित आदेश देना न्यायालय का केवल अधिकार ही नहीं किंतु कर्तव्य भी है। प्रेमा की न्यायनिर्णय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय आगे निरीक्षण प्रस्तुत करते हैं कि, उपरोक्त तीनों में से किसी भी न्यायनिर्णय को ऐसे पढ़ा नहीं जा सकता कि, ‘अंतिम आदेशपत्र में प्राथमिक आदेशपत्र को नहीं परिवर्तीत जा सकता’, इसके होते हुए की पक्षकारों को समायोजित करने वाला अधिनियम परिवर्तित हो चुका है, अविवाहित कन्या के विषय में भेदभाव करने वाला चलन हटाया गए हैं, तथा संबंधित अधिनियम को भारतीय राज्यघटना की धारा 14 और 15 के अनुरूप बनाया गया है। Phoolchand & Anr. v. Gopal Lal, AIR 1967 SC 1470 तथा S. Sai Reddy, (1991 AIR SCW 488) की प्रमाण (Ratio) को इस विषय में सीधा प्रभाव पूर्ण मान कर माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि प्राथमिक आदेशपत्र को परिवर्तित कर कन्या के अंशभाग को बढ़ा कर अंतिम आदेशपत्र को अंतिम परिणाम दिया जाना चाहिए। यह दो न्याय निर्णय मूलतः अभ्यासनीय है।

82. Ganduri Koteshwaramma & Anr. V Chakiri Yanadi & Anr. की न्यायनिर्णय पर भी यहां विचार किया गया। केवल प्राथमिक आदेशपत्र 20 December 2004 से पहले पारित होने से कन्या का अधिकार समाप्त नहीं होगा। एस. साई रेड्डी की निर्णय को ध्यान में रखते हुए कन्या के अधिकार को पूर्णत: जाना जाएगा। परिवर्तित परिस्थिति में प्राथमिक आदेशपत्र को परिवर्तित करना इतना ही नहीं पूर्णतया नया प्राथमिक आदेशपत्र पारित करने के इस न्यायालय के अधिकार पर कोई रोकटोक नहीं है। फूलचंद के न्यायनिर्णय में भी इसे दोहराया गया है की, नागरी प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जो कहता हो की एक से ज्यादा प्राथमिक आदेशपत्रों को पारित नहीं किया जा सकता। जहां पर न्याय पूर्ण होना आवश्यक होगा वहां पर प्राथमिक आदेशपत्र को परिवर्तित किया जा सकता है। एक से अधिक प्राथमिक आदेशपत्रोन्कोपारित किया जा सकता है। विशेषता विभाजन की परिस्थिति में जहां पर प्राथमिक आदेशपत्र के पश्चात पक्षकारों की मृत्यु होती है, या कोई नया जन्म होता है तब मध्यंतर में अंशभाग न्यून अधिक हो जाते हैं, वहां पर प्राथमिक आदेशपत्र को परिवर्तीत किया जा सकता है। तथा दूसरे आदेशपत्र को भी पारित किया जा सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए की अंतिम आदेशपत्र के आने तक विवाद पत्र समाप्त नहीं होता तथा न्यायालय को प्राथमिक आदेशपत्र पारित करने के पश्चात निर्माण होने वाले प्रश्नों के विषय में निर्णय लेने का संपूर्ण अधिकार है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फूलचंद तथा एस. साई रेडी के न्यायनिर्णय विचार योग्य है। तथा इस विषय में नागरी प्रक्रिया संहिता, आदेश 20 नियम 18 को ठीक प्रकार से आंकना चाहिए। इस विषय में नागरी प्रक्रिया संहिता की धारा 97 की प्रावधान की होते हुए भी न्यायालय की प्राथमिक आदेशपत्र को आधुनिक बनाना, सुधारना तथा परिवर्तित करने की अधिकार पर कोई बाधा नहीं आती। यह सत्य है कि अंतिम आदेशपत्र को प्राथमिक आदेशपत्र के अनुरूप होना चाहिए। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है की प्राथमिक आदेशपत्र को परिवर्तित नहीं किया जा सकता। इस संपूर्ण विवेचन से यह निश्चित किया गया है कि प्राथमिक आदेशपत्र केवल अंशभाग घोषित करता है। तथा कन्या को पहचानने योग्य समान अधिकार प्रदान करता है। यह संपूर्ण विवेचन और उल्लेख किए गए न्याय निर्णय मूल रूप में अभ्यास योग्य है।

83. विभाजन और उसकी परिणाम के विषय में सर्वोच्च न्यायालय ने Shub Karan Bubna Alias Shub Karan Prasad Bubna v Sita Saran Bubna and Ors., (2009) 9 SCC 689 की न्याय निर्णय में विचार किया है। विभाजन शब्द की व्याख्या की गई है। "अंशभाग का विलगीकरण" विभाजन की एक प्रजाति होने के विषय में विवेचन किया गया है। स्वतंत्र अंशभाग एक या एक से ज्यादा सहधाराको को स्वतंत्र अंशभाग प्रदान करता है। जबकि उर्वरित सह्धारक संपदा को सामयिक रूप में धारण करना शुरू रखते हैं। विभाजन के मुख्य तत्व सामने आते हैं कि, अधिकार और अंशभाग की घोषणा होना इस प्रक्रिया का केवल प्रथम चरण है। प्राथमिक आदेशपत्र से विवाद पत्र समाप्त नहीं होता। पूर्णता विभाजन होने के पश्चात अंतिम आदेशपत्र के साथ विभाजन पूर्ण होता है। अंतिम आदेशपत्र का आवेदन काल मर्यादा अधिनियम के धारा 136 अनुसार दिया जानेवाला कार्यवहन आवेदन नहीं है। धारा 137 द्वारा दिया जाने वाला नया आवेदन नहीं है। वह तो न्यायालय को आयुक्त (commission) नियुक्त कर के, प्रतिवेदन (report) प्राप्त कर के, विवाद पत्र को अंतिम तार्किक निष्कर्ष पहुंचाने के लिए दिया जाने वाला स्मरण पत्र है। अंतिम न्याय निर्णय के लिए दिया जाने वाला आवेदन प्रलंबित विवाद पत्र में दिए जाने वाले आवेदन जैसा ही सामान्य आवेदन माना जाएगा। इस आवेदन के उत्तर में न्यायालय प्राथमिक आदेशपत्र के पश्चात अंतिम आदेशपत्र पारित कर सकता है, प्राथमिक आदेशपत्र और अंतिम आदेशपत्र के संयोजन को पारित कर सकता है, तथा निश्चित निर्देश देने वाले एक ही आदेशपत्र को पारित कर सकता है। विभाजन के विवाद पत्र में आने वाला आदेशपत्र सभी सहधाराकोकी लाभ के लिए होता है। इसलिए कभीकबार ऐसे भी कहा जाता है कि विभाजन की आदेशपत्र में कोई न्यायनिर्णय दायित्वधारक (decree debtor) नहीं होता। There is really no judgement debtor in a partition decree. सही मायनों में यह संपूर्ण विवरण मूलतः अभ्यासनीय है।

84. Laxmi Narayan Guin & Ors. V. Niranjan Modak, (1985) 1 SCC 270 में यह निश्चित किया गया है कि याचिका (appeal) के दौरान अधिनियम में होने वाली परिवर्तनों को विचार में लेना चाहिए। यहां पर इस विषय में ७ और न्याय निर्णयों का विवेचन बहुत ही सुंदरता से किया गया है।

85. United Bank of INdia, Calcutta v. Abhijit Tea Co. Pvt. Ltd. & Ors. AIR 2000 SC 2957 में यह निश्चित किया गया है कि मूल प्रक्रिया में तथा याचिका की प्रक्रिया में मध्यंतर में यदि कोई नया अधिनियम आ जाता है, तो उसका प्रभाव पुराने प्रक्रिया पर पड़ेगा और न्यायालय को वह नया परिवर्तन ध्यान में लेकर ही निर्णय लेना पड़ेगा।

86. Gurupad Khandappa Magdum की न्यायनिर्णय में धारा 6 की उपलब्धि (आय) के संदर्भ में विधवा की अधिकार का प्रश्न विचार के लिए सामने आया था। यह निश्चित किया गया कि विधवा को पति के मृत्यु के पहले की स्थिति में होनेवाली कल्पित विभाजन पर पत्नी को संभवता मिलने वाला अंशभाग तथा पत्नी को स्वतंत्र रूप में पति के मृत्यु के पश्चात मिलने वाला अंशभाग दोनों अंशभागोन्को मिलाकर अंशभाग दिया जाएगा। तथा सबसे प्राथमिक चरण होगा मृतक का मृत्यु पू्र्व अंशभाग कल्पित करना। धारा 6 की उपलब्धि में निस्संदेह काल्पनिक अंशभाग के विषय में यह कहां गया हैं। यह कल्पना एक बार की जाने पर अपरिवर्तनीय हो जाती है। इस प्रकार धारा 6 की उपलब्धि (आय) के अनुसार केवल मृतक की उत्तर अधिकारियों की अंशभाग की निश्चित की जाएगी। अन्य सह्धारकोन्की जन्म और मृत्यु से न्यून अधिक होने वाली अंशभाग की निश्चित ही नहीं की जाएगी। यह संपूर्ण विवरण मूल रूप में पढ़े।

87. Anar Devi & Ors. v. Parmeshwari Devi & Ors में यह निश्चित किया गया कि मृतक के श्रेणी (I) की उत्तराधिकारी महिला का अधिकार जीविता के तत्वों के आधार पर नहीं किंतु मृत्यु पत्र के आधार पर निश्चित किया जाएगा, तथा कल्पित विभाजन के आधार पर निश्चित किया जाएगा। अर्थात यह कल्पित विभाजन केवल मृतक के उत्तराधिकारी एवं के लिए है। कल्पित विभाजन से सहभागिता तथा अविभक्त हिंदू परिवार का कार्यवहन समाप्त नहीं होती। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण विवेचन है।

88. Puttrangamma & Ors. v. M. S. RAngamma & Ors. AIR 1968 SC 1018 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू लॉ के "वैधानिक स्थिति में निश्चित, संदिग्ध तथा एकपक्षीय घोषणा द्वारा स्वतंत्र होने की" सिद्धांत (doctrine) के विषय में सोचा गया है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण विवेचन है। इस सिद्धांत के अनुसार परिवार का एक सदस्य इस पद्धति से घोषणा कर के अपने स्वतंत्र माने गए  हिस्से को उपभोगना आरंभ करता है। तो वह स्थिति में स्वतंत्र (separation in status) माना जाता है। इस विषय में एकमत होना तथा कोई बंधपत्र होना आवश्यक नहीं है। अन्य सहधारक कि संमती होना आवश्यक नही है। यहां पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय विज्ञानेश्वर, सरस्वती विलास, वीरमित्रोंदय के मित्र मिश्रा, व्यवहार मयूख के नीलकांत भट्ट द्वारा लिखी हुई टिप्पणी संबंधित श्लोक और उनके अर्थ प्रस्तुत करता हैं। Girja Bai v. Sadashiv Dhundiraj, ILR 42 Cal 1031 में स्वतंत्र होना और प्रत्यक्ष विभाजन होना इन दो विषयों में भेद स्पष्ट किया गया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, "एक व्यक्तिगत निर्णय है तो दूसरा व्यक्तिगत निर्णय का परिणाम"। एक बार एक सह्धारक के स्वतंत्र होने की घोषणा के पश्चात ना तो सहधारक, ना तो न्यायालय घोषणा करने वाले की विवेक बुद्धि को उसके स्वतंत्र होने के कारण को ढूंढने के लिए परीक्षण नहीं कर सकते। न्यायालय सिर्फ उसके स्वतंत्र होने के अधिकार का कार्यवहन कर सकता है। इस विषय में Syed Kasam v. Jorawar Singh, ILR 50 Cal 84, Viscount Cave, में भी यही सिद्धांत दोहराया गया है। कोई प्रत्यक्ष विच्छेदन  होना आवश्यक नहीं है। विवाद पत्र का सादरीकरण आदेशपत्र से भी पहले अधिकारों का स्वतंत्र होना सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।

89. केवल स्वतंत्र होने की स्थिति जो कि विवाद पत्र सादर करने से उत्पन्न हुई है, विभाजन सिद्ध नहीं करती। तथा अंतिम आदेशपत्र होने तक अधिनियम में, घटनाक्रम में, परिवर्तन के कारण होने वाले परिवर्तन को विचार में लेना पड़ेगा।

90. वैधानिक कल्पना के परिणाम के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने Commissioner of Income Tax, Delhi v. S. Teja Singh, AIR 1959 SC 352, का आधार लिया है। किस विषय में यह न्यायनिर्णय निश्चित करता है कि, वैधानिक कल्पना की व्याप्ति के विषय में कल्पना के कार्यान्वित होने के लिए जो भी घटनाक्रम कारण हो सकता है, उस घटनाक्रम का आधार लेना चाहिए। किंतु कल्पना का आधार केवल मृतक के मृत्यु पूर्व अंशभाग को निश्चित करने के लिए करना होगा। उससे अधिक उसकी व्याप्ति नहीं बढ़ा सकते।

91. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, वैधानिक कल्पना को जिस उद्दिष्ट से अस्तित्व में लाया गया है उस उद्दिष्ट से ज्यादा उस कल्पना को नहीं खींचा जा सकता। वह कल्पना उस उद्देश्य से ज्यादा कोई भी परिणाम नहीं दे सकती। मृतक का मृत्यु पूर्व अंशभाग निश्चित करने के पश्चात, विभाजन होना, संपदा का विच्छेदन होना, उसे अंतिम स्वरूप मिलना, ऐसा कोई भी परिणाम देने में वैधानिक कल्पना अक्षम है। सुधारना से पूर्व धारा 6 में 1956 में लाई गई उपलब्धि का उद्दिष्ट मर्यादित है। इस परिच्छेद में दिए गए 3 न्याय निर्णय वैधानिक कल्पना की उपलब्धि उत्पन्न ना होने का नियम साकार करते हैं।

92. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, 1956 में आई धारा 6 विधवा को पुत्र के साथ समान अधिकार लेने से नहीं रोकती। 1956 से पहले मिताक्षरा शाखा में पारिवारिक संपदा का विभाजन करना अनुज्ञेय नहीं था। तथा 1956 के अधिनियम की धारा 30 पुरुष सभासद को उसका अधिकार मृत्यु पत्र से हस्तांतरित करने का अधिकार प्रदान करती है।

93. Gyarsi Bai v. Dhansukh Lal, AIR 1965 SC 1055 के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, मृतक के उत्तर अधिकारी का अंशभाग निश्चित करने के लिए सारे सह्धाराकोन्काअंशभाग निश्चित करना पड़ेगा। किंतु माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने काल्पनिक तथा तर्क पूर्ण विभाजन को समाप्त करने की कोई घोषणा यह निर्णय देते समय नहीं की है।

94. मृतक सह्धारक का अंशभाग नए धारा 6 उपलब्धि एक के अनुसार बिना मृत्यु पत्र उत्तराधिकार की तत्वों से निश्चित किया जाएगा।

95. Hari Chand Roach v. Hem Chand & Ors., (2010) 14 SCC 294 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि विधवा को पति के हिस्से का उत्तराधिकार मिलता है तथा विधवा को अविभक्त अंशभाग में भी पारिवारिक संपदा भी मिलता है। धारा 6 की प्रावधान से सिद्ध होता है कि, अंशभाग तो निश्चित होता है किंतु अधिकार अविभक्त ही रहता है।

96. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय प्रकाश वर्सेस फूलवती और दानअम्मा कि न्यायनिर्णय को नकारता हैं। इन न्यायनिर्णयों में वैधानिक कल्पना की उपलब्धि के विषय में की गई चर्चा को नकारता है। तथा प्राथमिक आदेशपत्र को न्याय के हित में परिवर्तित करना उचित निश्चित करता हैं। कन्या का जन्म सुधारना से यदि पहले हुआ है तो भी, यदि सुधारना के समय पर कन्या जीवित है तो भी, सुधारना के अनुसार कन्या को निस्संदेह सह्धारक (coparcener) बनाया गया है। यह निश्चित करने के कारण यह न्याय निर्णय एक ऐतिहासिक निर्णय हो गया है।

धारा 6(5) के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि:

97. धारा 6(5) का स्पष्टीकरण कहता है कि "विभाजन" का अर्थ पंजीकृत विभाजन पत्र या न्यायालय की आदेशपत्र द्वारा अस्तित्व में आने वाला विभाजनहै। यह स्पष्टीकरण 20 दिसंबर 2004 के पश्चात प्रस्तुत किया गया है। मौखिक विभाजन को न्यायालय का समर्थन नहीं दिया गया है।

98. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, मौखिक विभाजन यदि हुआ भी है तो ऐसा मौखिक विभाजन भी संयुक्तिक अभिलेखीय प्रमाणों से सिद्ध करना पड़ेगा।

99. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस परिच्छेद में 29 जुलाई 2005 की कैबिनेट नोट को पुन:प्रस्तुत किया है जो धारा 6(5) के विषय में है।

100. मूल विधायक की धारा 6(5) को इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय पुन: प्रस्तुत किया है।

101. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायालय के मित्र श्री आर. वेंकटरमणि ने 20 दिसंबर 2004 से पहले के किसी भी हस्तांतरण को बाधा लाने के विषय में जो युक्तिवाद किया था उसे पुनः प्रस्तुत किया है।

102. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायालय की मित्र श्री व्ही. व्ही. एस. राव ने धारा 6(5) के विषय में समिती का मानस पुरानी व्यवहारों को संपूर्ण धारा 6 लागू ही नहीं होती इस विषय में किए गए व्यक्तिवाद को पुनः प्रस्तुत किया है।

103. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायालय की मित्र श्री व्ही व्ही एस राव ने धारा 6(5) के विषय में स्पष्टीकरण parliament committee का प्रतिवेदन (report) आने के पश्चात प्रस्तुत किया गया था। तथा मौखिक विभाजन का परिणाम कन्या के अंशभाग पर नहीं होता इस विषय में किए गए विवाद को पुनः प्रस्तुत किया है। केवल प्रमाणिक पूर्व हस्तांतरण का बचाव किया गया है। तथा स्मरण पत्र के द्वारा या किसी भी अभिलेख के द्वारा प्रमाणित हो सके ऐसे मौखिक विभाजन का संरक्षण किया गया है। इस विषय में किए गए युक्तिवाद को भी पुन: प्रस्तुत किया है।

104. श्री श्रीधर पोटा राजू का युक्तिवादी की, सुधारना से पहले वाली काल्पनिक विभाजन की धारा 6 की उपलब्धि 2005 तक अस्तित्व में थी उसे दुर्लक्षित करना उचित नहीं है।

105. मिसेस अनघा देसाई की युक्तिवाद को की, पुराना विभाजन उचित प्रकार से सिद्ध किया गया है तो कन्या को ऐसा व्यवहार पुनः खोलने का अवसर नहीं मिलना चाहिए।

106. इस परिच्छेद में यह निश्चित किया गया है कि जो मौखिक विभाजन प्रमाणित नहीं किया जा सकता उसे नहीं माना जाएगा।

107. पारिवारिक व्यवस्था को कैसे परिणाम दिया जाता है इस विषय में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायनिर्णय Kale v. Deputy Director of Consolidation, (1976) 3 SCC 119 की महत्वपूर्ण निरीक्षणों का माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस परिच्छेद में किया गया है। पारिवारिक व्यवस्था को परिणाम देने के लिए विभाजन पत्र में अगले बिंदु होना आवश्यक है: जैसे, 1.पारिवारिक व्यवस्था परिवार के अंतर्गत उपस्थित सारे विवाद को अंतिम स्वरूप देने में सक्षम हो, 2.यह व्यवस्था स्वयं प्रेरित होनी चाहिए। धोखाधड़ी, दबाव तथा अनुचित प्रभाव से यह व्यवस्था प्रेरित नहीं होनी चाहिए।, 3.पारिवारिक व्यवस्था मौखिक भी हो सकती है जहां पर पंजीकरण आवश्यक नहीं है, 4.जो अभिलेख पंजीकरण अधिनियम की धारा 17(2) के अनुसार mischief नहीं है उसे पंजीकृत करना आवश्यक नहीं, क्योंकि ऐसा अभिलेख अचल संपदा में ना कोई अधिकार निर्माण करता है, ना कोई अधिकार समाप्त करता है, 5.हर सदस्य को पारिवारिक व्यवस्था में कोई ना कोई title claim या interest उत्तराधिकार के स्वरूप में उपलब्ध होना आवश्यक है। कोई सदस्य ऐसे किसी व्यक्ति की अधिकार में अपना उत्तराधिकार हस्तांतरित करता है तो ही उत्तराधिकार ना होने पर भी मिला हुआ अधिकार न्यायालय मान सकता है।, 6.प्रामाणिक पारिवारिक व्यवस्था पत्र संबंधित सारे सदस्यों पर और पक्षकारों पर अंतिम और बंधनकारक है। Tek bahadur Bhujil v. Debi Singh Bhujil, AIR 1966 SC 292, 295 की न्यायनिर्णय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि, मौखिक पारिवारिक व्यवस्था यदि स्मरण पत्र के रूप में लिखी गई तो ही उसका पंजीकरण अनिवार्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह निश्चित किया है कि परिवार में शांति बनाए रखने के लिए पारिवारिक व्यवस्था आवश्यक हैं।

108. इस परिच्छेद में सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, विधवा के दत्तक पुत्र को अंशभाग मिलेगा। Shripad Gajanan Suthankar v. Dattaram Kashinath Suthankar, (1974) 2 SCC 156, का सर्वोच्च न्यायालय का न्यायनिर्णय इस विषय में कहता है कि, 1.दत्तक पुत्र को अधिकार वैसे ही प्राप्त होगा जैसे वह दत्तक पुत्र पिता के मृत्यु के समय पुत्र था, तथा माता की अंतर्गत विभाजन से दत्तक पुत्र के अधिकार कम नहीं होंगे, 2.किंतु पश्चात हुए दत्तक पत्र से पुराना विभाजन समाप्त नहीं होगा, 3.दत्तक विधान से पहले किए गए कोई भी विधि पूर्वक हस्तांतरण दत्तक से अपने आप को सुरक्षित रख पाएंगे, 4.विधि पूर्वक हस्तांतरण का अर्थ केवल कौटुंबिक आवश्यकता के लिए किया गया हस्तांतरण नहीं है, किंतु वैध पद्धति से किए गए सारे हस्तांतरण इसमें समाविष्ट होंगे, 5.जो हस्तांतरण हिंदू नियमों के अनुसार विधवा ने किए हैं वही केवल दत्तक पर बाध्य होंगे। तथा बनारस शाखा के कर्ता ने किए हुए हस्तांतरण दत्तक पर बाध्य होंगे, 6.मिताक्षरा हिंदू परिवार के सदस्य ने एक समय पर वैध पद्धति से विभाजन में मिला उसका अंशभाग यदि हस्तांतरित किया है तो वह हस्तांतरण चाहे किसी भी प्रकार का हो दत्तक पुत्र पर बाध्य है। अर्थात अवैध हस्तांतरण और अवैध होने योग्य हस्तांतरण के विषय में यह न्यायालय कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, वह स्वतंत्र विषय है।

109. इस परिच्छेद में सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि, स्वतंत्र अभिपत्ती पुराने विभाजन को सिद्ध नहीं करती। सामूहिकता का गृहीतक (presumption) है।

110. इस परिच्छेद में सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, प्रथम दर्शन पर जिस अभिलेख में स्वतंत्र होने की इच्छा प्रकट की गई है, उस अभिलेख से विभक्त स्थिति निर्माण हो जाती है। किंतु वह अभिलेख शाम तथा नॉमिनल तथा कार्यान्वित लाने के लिए नहीं था, या  किसी अन्य हेतु से अस्तित्व में लाया गया था ऐसा सिद्ध करने के लिए उपलब्ध है।

111. इस परिच्छेद में सर्वोच्च न्यायालय ने निश्चित किया है कि जो आवेदन झूठा सिद्ध हुआ है उसके परिणाम स्वरूप संपदा फिर से सामुदायिक बन जाएगी।

112. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि, केवल समुदाय से अलग रहना विभाजन का प्रमाण नहीं है। तथा स्वतंत्र अन्न, स्वतंत्र निवास भी परिवार से स्वतंत्र होने का प्रमाण नहीं है। पारिवारिक संपदा की स्वतंत्र अभिपत्ती होना, स्वतंत्र उत्पन्न का भाग पारिवारिक उत्पन्न से लेना, भूमि अभिलेख में स्वतंत्र पंजीकरण होना, पारस्परिक व्यवहार होना, यह कुछ ऐसी घटनाएँ है जिनकी कारण स्वतंत्र होने का अनुमान लगाया जा सकता है।

113. इस परिच्छेद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय कहता हैं कि एक सदस्य के स्वतंत्र होने से परिवार की सामूहिक था समाप्त नहीं होती। परिवार सामूहिक ही रहता है। सामूहिक रहने के लिए परिवार को किसी भी स्पष्ट बंध पत्र की आवश्यकता नहीं। विभाजन न्यायालय के आदेशपत्र से हुआ है तो किसी भी प्रकार की दुविधा के लिए आदेशपत्र ही प्रमाण है। तथा पुनर्मिलन (reunion) को सिद्ध करना आवश्यक है।

114. दो भाइयों का परिवार भी सामूहिक रह सकता है।

115. विवाद पत्र प्रस्तुत करने से स्वतंत्रता हो जाती है। किंतु आदेशपत्र आवश्यक है। विवाद पत्र के प्रलंबित होने के समय पर अधिकार परिवर्तीत हो सकते हैं। कई घटनाओं में विभाजन धोखाधड़ी, दोष इत्यादि के कारण पुनर्विचार के लिए मुक्त है। तथा सुयोग्य विवादो में नाबालिक के लिए भी पुनर्विचार के लिए आदेशपत्र मुक्त है।

116. 20 दिसंबर 2004 से पहले हुआ पंजीकृत तथा न्यायालय के आदेशपत्र से अस्तित्व में आया हुआ विभाजन पत्र न्यायालय ने सुरक्षित किया है।

117. स्पष्टीकरण में विभाजन की विशेष व्याख्या की गई है। वैध प्रकार से हुए पुराने विभाजन को सुरक्षित रखा गया है। अवैध प्रकार से हुए पुराने विभाजन से कन्याओंको मिला हुआ यह नया अधिकार सुरक्षित रखा गया है। न्यायालयोंको यह सूचित किया गया है कि लिंग न्याय के विषय में उनको संभावना के भरोसे काम नहीं करना चाहिए। धारा 6(5) के प्रावधान के अनुसार कार्य को परिणाम देना चाहिए। कन्याओंके कल्याण के लिए सुधारना विधायक ने जो प्रावधान किए हैं उन प्रावधानों के उद्दिष्ट को कोई भी न्यायालय पराभूत नहीं कर सकता।

118. न्यायालय की आदेशपत्र से विभाजन होने का अर्थ है, अंतिम आदेशपत्र होना। सुधारना के उद्दिष्ट को अंतिम परिणाम देने के लिए यह आवश्यक है। पंजीकृत विभाजन पत्र सिद्ध होना आवश्यक है। विशेष सुधारना से धारा 6(5) के अनुसार कन्याओंके अधिकारों का गठन किया गया है। पुरानी अधिनियम में विभाजन के प्रमाण का अनुपस्थित होना नए अधिनियम में सुधारा गया है। विभाजन के अन्य मार्ग भी पहचान लिए गए हैं, जो प्रमाण पर आधारित है। जैसे कि सार्वजनिक अभिलेख में उल्लेख। ऐसा नहीं किया गया तो धारा 6(5) और उसका स्पष्टीकरण इनके आत्मा के विरुद्ध होगा।

119. सर्वोच्च न्यायालय ने यह निश्चित किया है कि, 1. कन्या को धारा 6 की अनुसार पुत्र जैसे अधिकार और दायित्व प्राप्त होंगे, 2. कन्या 9 सितंबर 2005 से अधिकार प्राप्त हो गए हैं। चाहे उनका जन्म 9 सितंबर 2005 के पहले का हो, या पश्चात का। किंतु 20 दिसंबर 2004 तक हो चुके हस्तांतरण को सुरक्षित रखा गया है।, 3. क्योंकि विभाजन में अंशभाग जन्म से मिल रहा है तो कन्या के पिता का 9 सितंबर 2005 को जीवित रहना आवश्यक नहीं है।, 4. कल्पित विभाजन केवल श्रेणी एक के सह्धारक के मृत्यु के पश्चात मृत्यु से पूर्व मृतक को संभवता अब तक होने वाले अधिकार पर निश्चित करने के उद्देश्य से होगा। सुधारित धारा 6 की प्रावधानोंको पूर्णता परिणाम देना होगा जो कि अंतिम आदेशपत्र है। 5. मौखिक विभाजन संयुक्त विवाद धारा 6(5) की स्पष्टीकरण के अनुसार नहीं माना जाएगा। अपवाद में ऐसे मौखिक विभाजन जो कि सार्वजनिक अभिलेख से तथा न्यायालय द्वारा प्रमाणित अन्य प्रमाण से सिद्ध होते हैं, वह मौखिक विभाजन माने जाएंगे। केवल मौखिक प्रमाण पर आधारित विभाजन नहीं स्वीकारा जाएगा तथा संपूर्णतया नकारा जाएगा।

118. प्रलंबित केवल पत्र अधिकतर 6 महीने में समाप्त किए जाएं। प्रकाश वर्सेस फूलवती, मंगल वर्सेस टीवी राजू तथा धनम्मा के निर्णय समाप्त किये जा रहा है।

(माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्याय निर्णय को आपके लिए भाषांतर कर उसमें अपने विचार रखने वाले इस लेख के लेखक है विधिज्ञ रणजितसिंह घाटगे, संपर्क क्रमांक ९८२३०४४२८२) 🦅

4 september 2020 1500

https://indiankanoon.org/doc/67965481/ 

Jeet

Advocate Ranjitsinh Ghatge 🦅

9823044282 / 8554972433 / 9049862433

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